शरीर, मन और आत्मा को एकसाथ लाता है योग

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भारत की सांस्कृतिक और सामाजिक इकाई का वृहद ढांचा इस राष्ट्र के संस्कार और सचेतक समाज से है। विस्तृत धर्मग्रंथ और उपनिषद जीवन जीने की कलाओं के साथ संस्कारों के संरक्षण की गाथा कहते हैं। ‘योग’ जीवन जीने की इन्हीं कलाओं में एक है।


‘योग’ भारत में एक आध्यात्मिक प्रक्रिया को कहते हैं जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने (योग) का काम होता है। यह शब्द, प्रक्रिया और धारणा बौद्ध धर्म, जैन धर्म और हिन्दू धर्म में ध्यान-प्रक्रिया से संबंधित है। ‘योग’ शब्द भारत से बौद्ध धर्म के साथ चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया और श्रीलंका में भी फैल गया है और इस समय सारे सभ्य जगत में लोग इससे परिचित हैं।
प्रतिष्ठित धर्मग्रंथ भगवद्गीता में ‘योग’ शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है, कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे बुद्धियोग, संन्यासयोग, कर्मयोग। वेदोत्तर काल में भक्तियोग और हठयोग नाम भी प्रचलित हो गए हैं। पतंजलि योग-दर्शन में क्रियायोग शब्द देखने में आता है।



‘पाशुपत योग’ और ‘माहेश्वर योग’ जैसे शब्दों के भी प्रसंग मिलते हैं। इन सब स्थलों में ‘योग’ शब्द के जो अर्थ हैं, वे एक-दूसरे के विरोधी हैं, परंतु इस प्रकार के विभिन्न प्रयोगों को देखने से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि ‘योग’ की परिभाषा करना कठिन कार्य है।
‘योग’ शब्द ‘युज समाधौ’ आत्मनेपदी दिवादिगणीय धातु में ‘घं’ प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात चित्तवृत्तियों का निरोध। वैसे ‘योग’ शब्द ‘युजिर योग’ तथा ‘युज संयमने’ धातु से भी निष्पन्न होता है किंतु तब इस स्थिति में ‘योग’ शब्द का अर्थ क्रमश: योगफल, जोड़ तथा नियमन होगा। आगे ‘योग’ में हम देखेंगे कि आत्मा और परमात्मा के विषय में भी ‘योग’ कहा गया है।
गीता में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है ‘योग: कर्मसु कौशलम्‌’ (योग से कर्मों में कुशलता आती है)। पंतजलि ने ‘योगदर्शन’ में जो परिभाषा दी है- ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:’ अर्थात चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम ‘योग’ है। इस वाक्य के 2 अर्थ हो सकते हैं- चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम ‘योग’ है या इस अवस्था को लाने के उपाय को ‘योग’ कहते हैं।


पतंजलि व्यापक रूप से औपचारिक ‘योग दर्शन’ के संस्थापक माने जाते हैं। पतंजलि का योग दर्शन बुद्धि के नियंत्रण के लिए एक प्रणाली है जिसे राजयोग के रूप में जाना जाता है। पतंजलि उनके दूसरे सूत्र में ‘योग’ शब्द को परिभाषित करते हैं, जो उनके पूरे काम के लिए व्याख्या सूत्र माना जाता है।
तीन संस्कृत शब्दों के अर्थ पर यह संस्कृत परिभाषा टिकी है- अई, के, तैम्नी। इसका अनुवाद करते हैं कि ‘योग’ बुद्धि के संशोधनों का निषेध है। ‘योग’ की प्रारंभिक परिभाषा में इस शब्द nirodhah का उपयोग एक उदाहरण है कि बौद्धिक तकनीकी शब्दावली और अवधारणाएं योग सूत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इससे यह संकेत होता है कि बौद्ध विचारों के बारे में पतंजलि को जानकारी थी और अपनी प्रणाली में उन्हें बुनाई।
स्वामी विवेकानंद इस सूत्र का अनुवाद करते हुए कहते हैं कि ‘योग’ बुद्धि (चित्त) को विभिन्न रूपों (वृत्ति) लेने से अवरुद्ध करता है। पतंजलि का लेखन ‘अष्टांग योग’ (आठ अंगित योग) एक प्रणाली के लिए आधार बन गया।

‘योग’ की प्रसिद्धि भारत में स्वामी रामदेव के कारण ज्यादा हुई, इसे कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसके बाद पहली बार 11 दिसंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रत्येक वर्ष 21 जून को विश्व ‘योग’ दिवस के रूप में मान्यता दी है।
योग का जीवन में बहुत महत्व है। तन की तंदुरुस्ती, मन की शांति और वर्तमान में तो आय का जरिया भी है। प्रतिदिन योग करने से तन-मन के विकारों का समूल नाश होता है। जीवन के निर्बाध चलने के लिए स्वास्थ्य लाभ होना आवश्यक है। यदि आप का तन स्वस्थ है, तो आप जीवन के सभी सुख जी पाएंगे, अन्यथा ढाक के तीन पात।



ज्ञानी कहते हैं कि ‘पहला सुख निरोगी काया’ और निरोगी काया के लिए ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ और मन की निर्मलता के लिए योग और योगी मुद्रा का होना आवश्यक है। योग और योगी द्वारा ही भारतीय मनीषा में जाग्रति और शांति के साथ संवर्धन का महत्व स्थापित हो पाएगा।
वर्तमान में योग से आय भी प्राप्त की जा सकती है इस बात को बल दिया है पतंजलि योगपीठ के स्वामी रामदेवजी ने। वे अपने संस्थान के माध्यम से राष्ट्र को निरोगी बनाने के लिए भारत के प्रत्येक ग्राम, नगर और प्रांत में योग प्रचारकों की नियुक्ति कर रहे हैं। उन प्रचारकों का दायित्व होगा लोगों में योग क्रांति का सूत्रपात करना, योग सीखना और इसके एवज में पतंजलि ट्रस्ट द्वारा योग प्रचारकों को मानदेय भी दिया जाएगा। यदि वहां न जुड़ना चाहें तो निजी योग कक्षाओं का संचालन करके भी आमदनी प्राप्त की जा सकती है अर्थात तन-मन-धन के लिए लाभप्रद है योग।
योग का जीवन में स्वास्थ्यगत महत्व तो है ही, साथ में आर्थिक सुधार हेतु भी योग महत्वपूर्ण है। हमें अपने जीवन में नियमित योग से जुड़े रहना चाहिए और योग द्वारा शरीर को स्वस्थ रखना ही चाहिए, क्योंकि ‘एक तंदुरुस्ती हजार नियामत’ है।


डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’